गढ़वा अभिलेख

परिचय

प्रयागराज जनपद के बारा तहसील स्थित बारा मुख्यालय से लगभग ८ मील दक्षिण-पश्चिम शंकरगढ़ से डेढ़ मील की दूरी पर एक प्राचीन दुर्ग है जिसे लोग गढ़वा दुर्ग, शंकरगढ़ कहते हैं। इस दुर्ग के भीतर आजकल बस्ती बसी है। वहाँ एक आधुनिक मकान की दीवाल में पत्थर की एक पटिया लगी हुई थी। इसी पटिया पर ‘गढ़वा अभिलेख’ अंकित है। १८७१-७२ ई० में इसकी ओर राजा शिवप्रसाद ‘सितारे-हिन्द’ का ध्यान आकृष्ट हुआ और वे उसे वहाँ से ले आये और अब के भारतीय संग्रहालय, कोलकाता में संग्रहित है।

यह अभिलेख-युक्त पटिया अपने वर्तमान रूप में केवल आधा ही उपलब्ध है; पीछे का भाग किसी ने काटकर अलग कर दिया, जो अब अप्राप्य है। इसके आगे-पीछे के दो पटलों पर चार लेखों का अंकन हुआ था, जो पत्थर के काट डालने के कारण अब केवल अधूरे उपलब्ध हैं। एक ओर के पटल पर, जिस पर तीन लेखों का अंकन केवल बायीं ओर के अंश और दूसरी ओर के पटल पर दायीं ओर का अंश उपलब्ध है।

इन्हें पहले एलेक्जेंडर कनिंघम ने प्रकाशित किया था। बाद में फ्लीट ने उनका सम्पादन किया। अपने सम्पादित रूप में उन्होंने प्रथम दो लेखों को एक साथ प्रथम और द्वितीय भाग के रूप में प्रकाशित किया।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- गढ़वा अभिलेख

स्थान :- गढ़वा दुर्ग, शंकरगढ़, बारा तहसील, प्रयागराज जनपद; उत्तर प्रदेश

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी )

समय :- कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल

गढ़वा अभिलेख ( प्रथम – क )

मूलपाठ

१. [ परमभागवत महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त राजस्य ]

२. संवतसरे …….. [ अस्यां ]

३. दिवस पूर्व्वायां …..

४. क मातृदासपुत्र ….. [ पुण्या ]

५. प्यानर्थं रचि [ त ] ….. [ स ]

६. दासत्र-सामान्य-ब्रह्मण ……

७. दीनारैर्द्दशभिः १० ……. [ । ]

८. यश्चैनं धर्म्म स्कन्धं [ व्युच्छिन्दात्स पंच महापातकैः सं ….. ]

९. य्यु श्रः स्यादिति [ ॥ ]

हिन्दी अनुवाद

[ परमभागवत महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त के शासन-काल में ] वर्ष ….. उस दिन को ….. मातृदास पुत्र ….. पुण्य-वृद्धि के उद्देश्य से सदा चलनेवाले सत्र में सामान्य रूप से ब्राह्मण ….. १० दीनार …… जो भी इस धर्म-स्कन्ध के प्रति [ व्यवधान उपस्थित करेगा वह पंचमहापातक के अपराध का भागी ] होगा।

गढ़वा अभिलेख ( प्रथम – ख ) गुप्त सम्वत् वर्ष ९८

परिचय

उपर्युक्त अभिलेख के क्रम में यह अभिलेख उसी के नीचे अंकित है। इसे फ्लीट ने उसी के क्रम में उसी लेख के खण्ड २ के रूप में प्रकाशित किया था। परन्तु यह सर्वथा स्वतंत्र लेख होने के कारण अलग स्वीकारना उचित होगा। यह अभिलेख भी खण्डित है और केवल बायीं ओर का अंश ( पूर्वांश ) ही उपलब्ध है। उत्तरांश अनुपलब्ध भाग में रहा होगा।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- गढ़वा अभिलेख ( प्रथम – ख )

स्थान :- गढ़वा दुर्ग, शंकरगढ़, बारा तहसील, प्रयागराज जनपद; उत्तर प्रदेश

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी )

समय :- कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल, गुप्त सम्वत् ९८

मूलपाठ

१. परमभागवत—महा[राजाधिराज — श्री कुमारगुप्त-रा]

२. ज्य- संवत्सरे ९० ( + ) ८ [ अस्यां खिस ]

३. पूर्व्वायां पाटलिपुत्रे ….. [ गृ ]

४. हस्थस्य भार्य्या य …..

५. आत्म-पुण्योपचय [ ार्थं ]

६. सदा सत्र सामान्य ब्र [ ाह्मण ]

७. दीनाराः दश १० …… [ । ]  [ यश्चैनं ]

८. धर्म्म स्कन्धं व्युच्छिन्द्या [ त्स ] पञ्चमहापातकैः संयुक्त स्यादि इति [ ॥ ]

हिन्दी अनुवाद

परमभागवत महा [ राजाधिराज श्री कुमारगुप्त ] के शासनकाल के वर्ष ९८ में ….. उक्त दिन पाटलिपुत्र ….. गृहस्थ की पत्नी ….. अपने पुण्य-वृद्धि [ के उद्देश्य से ] ….. सदा चलनेवाले सत्र में समान्य रूप से [ ब्राह्मण ] ….. १० दीनार ….. [ । ] जो भी इस धर्म-स्कंद में व्यवधान करेगा [ वह पंचमहापातक का भागी होगा। ]

गढ़वा अभिलेख ( द्वितीय )

भूमिका

यह अभिलेख गढ़वा दुर्ग, शंकरगढ़, बारा तहसील; जनपद प्रयागराज से प्राप्त उसी शिला फलक पर, जिस पर उपर्युक्त अभिलेख अंकित है, ठीक उनके नीचे अंकित है। उपर्युक्त लेखों से इसे एक रेखा द्वारा अलग किया गया है। इसका भी उत्तरांश अनुपलब्ध है। एलेक्जेंडर कनिंघम ने इसका पाठ १८७३ ई० में प्रकाशित किया था। तत्पश्चात् फ्लीट ने इसका सम्पादन किया।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- गढ़वा अभिलेख ( द्वितीय )

स्थान :- गढ़वा दुर्ग, शंकरगढ़, बारा तहसील, प्रयागराज जनपद; उत्तर प्रदेश

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी )

समय :- कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल

मूलपाठ

१. जितं भगवता। प [ रमभागवत-महाराजाधिराज ]-

२. श्री कुमा [ रगु ] प्त [ स्य-राज्य संवत्सरे ] …..

३. दिवसे १० [ अस्यां दिवस-पूर्व्वायां ] …..

४. रा पा [ टलिपु ] त्र ….

५. सदा सत्र सा [ मान्य ] ….

६. [ द ] त्ता दीनारः १० त (?) ….

७. ति सत्त्रे च दीनारास्त्रय् ….. [ ॥ ] [ यश्चैनं धर्म्म-स्कन्धं व्युच्छि ]-

८. न्द्यात्स पञ्चमहापा [ तकैः सम्युक्तः स्यादिति [ ॥ ]

९. गोयिन्दा लक्ष्मा ….

हिन्दी अनुवाद

जिंतभगवत्। परमभागवत महाराजाधिराज कुमारगुप्त के शासनकाल के वर्ष ….. के दिवस १० उक्तदिन पाटलिपुत्र के ….. सदा चलने वाले सत्र ….. के लिये १० दीनार दिया ….. और के सत्र को दिया [ जो भी इस धर्म स्कन्द में व्यवधान करेगा पंचमहापात का भागी होगा गोयिन्दा लक्ष्मा।

गढ़वा अभिलेख (तृतीय), गुप्त सम्वत् वर्ष ९८

परिचय

उपर्युक्त तीन अभिलेख, जिस शिलाफलक पर अंकित हैं, उसी फलक के दूसरी ओर यह लेख अंकित है। इसकी पहली पंक्ति तथा अन्य पंक्तियों का पूर्वांश अनुपलब्ध है। इसे भी १८८० ई० में एलेक्जेंडर कनिंघम ने प्रकाशित किया था। तत्पश्चात् फ्लीट ने इसका सम्पादन किया।

संक्षिप्त परिचय

नाम :- गढ़वा अभिलेख ( तृतीय )

स्थान :- गढ़वा दुर्ग, शंकरगढ़, बारा तहसील, प्रयागराज जनपद; उत्तर प्रदेश

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी )

समय :- कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल

मूलपाठ

१. [ जितं भगवता॥ परमभागवत महाराजाधि ]-

२. [ राज-श्री-कुमारगुप्त-राज्य-संवत्स ] रे ९० ( + )

३. ….. [ अस्यां दिवस ] – पूर्व्वायां पट्ट*

४. ………………… ने ( ? ) नात्मपुण्योप [ च ] —

५. [ यार्त्य ] ………. रे कालीयं सदा सत्र …..

६. ……………………….. कस्य तलकनिवांन्ते ( ? )

७. …………………… भ्यमं दीनाराः द्वादश

८. …………… स्यांकुरोद्म ( ? ) स्तच्छ ……..

९. ………. [ सं ] युक्त [ ः ] स्यादिति। ( ॥ )

  • भण्डारकर महोदय ने इसको ‘पदुअ’ पढ़ा है।

हिन्दी अनुवाद

इस लेख का कोई व्यवस्थित अनुवाद प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है। इसमें राज्य वर्ष ९८ का उल्लेख प्राप्त है। इस राज्यवर्ष के उल्लेख के आधार पर सहज अनुमान किया जा सकता है कि यह कुमारगुप्त ( प्रथम ) के काल का लेख है। सत्र में किये गये दान का उल्लेख-पत्र है

टिप्पणी

यह तथा पूर्वोल्लिखित तीनों अभिलेख एक ही शिलापट्ट पर अंकित हैं। पूर्वोक्त तीनों लेख एक ओर और यह दूसरी ओर है। शिलापट्ट का अपना भाग अनुपलब्ध होने के कारण ये सभी लेख खण्डित हैं।

  • गढ़वा अभिलेख ( द्वितीय ) के अतिरिक्त किसी में भी शासक का नाम उपलब्ध नहीं है। इसमें अभिलेख में शासक के रूप में कुमारगुप्त का नाम है।
  • गढ़वा अभिलेख ( प्रथम – ख ) और गढ़वा अभिलेख ( तृतीय ) में राज्यवर्ष का उल्लेख उपलब्ध है।
  • गढ़वा अभिलेख ( प्रथम – ख ) में इसे फ्लीट ने ८८ पढ़ा था। इस आधार पर उन्होंने बिलसड़ अभिलेख और गढ़वा अभिलेख ( प्रथम ) को चन्द्रगुप्त ( द्वितीय ) के होने का अनुमान प्रकट किया था और इसी आधार पर उन्होंने अनुपलब्ध अंश में चन्द्रगुप्त ( द्वितीय ) के रूप में शासक के नाम की पूर्ति की थी।
  • परन्तु अभी हाल में पी० आर० श्रीनिवासन ने इस ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि फ्लीट ने जिसे ८० के संकेत माना है वह वस्तुतः ९० का संकेत है। इस प्रकार गढ़वा अभिलेख ( प्रथम ) वर्ष ८८ का न होकर ९८ का है। इस प्रकार वह चन्द्रगुप्त ( द्वितीय ) के काल का अभिलेख न होकर कुमारगुप्त ( प्रथम ) के शासनकाल का है।
  • पी० आर० श्रीनिवासन के इस मत को स्वीकार कर अधिकतर विद्वानों ने बिलसड़ अभिलेख और गढ़वा अभिलेख ( प्रथम ) में शासक के रूप में अनुपलब्ध अंश में चन्द्रगुप्त ( द्वितीय ) के स्थान पर कुमारगुप्त (प्रथम) का नाम द्वारा पूर्ति की है।
  • गढ़वा अभिलेख ( द्वितीय ) की दूसरी पंक्ति में कुमारगुप्त का नाम उपलब्ध है परन्तु गढ़वा अभिलेख ( तृतीय ) में नहीं है उसे शासन वर्ष ८८ के आधार पर फ्लीट ने स्वयं कुमारगुप्त के शासन काल के अन्तर्गत रखा है और इसी रूप में शासक के नाम की पूर्ति की है।

इस प्रकार चारों ही लेख समान रूप से कुमारगुप्त ( प्रथम ) राज्य वर्ष ९८ के जान पड़ते हैं। गढ़वा अभिलेख ( द्वितीय ) में पाटलिपुत्र का उल्लेख हुआ है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि अन्य अभिलेखों में भी पाटलिपुत्र का उल्लेख रहा होगा। इससे ऐसा जान पड़ता है कि चारों अभिलेखों में जिन दानों की चर्चा है वे सभी पाटलिपुत्र के निवासी रहे होंगे और इन अभिलेखों का अंकन एक साथ ही किया गया होगा।

  • पहले अभिलेख का दान मातृगुप्त के पुत्र,
  • दूसरा किसी गृहस्थ की भार्य्या ने दिया था।
  • तीसरे और चौथे अभिलेख के दानदाताओं का नाम अनुपलब्ध है किन्तु तीसरे लेख के अन्त में गोविन्दा और लक्ष्मा दो नाम हैं, वे दानदाताओं के ही होंगे। उन्होंने अन्त में कदाचित् अपने हस्ताक्षर के रूप में अंकित कराया होगा।

जिस स्थान पर ये अभिलेख मिले हैं वहाँ गुप्तकाल में कोई प्रख्यात देवस्थान रहा होगा जहाँ ब्राह्मण के भोजन के लिये नियमित सत्र चला करता था, जिसे श्रद्धालुओं और भक्तों से निरन्तर दान प्राप्त होता रहता था।

पहले तीन अभिलेखों में दस-दस और चौथे में बारह दीनार दान किया था। तीसरे अभिलेख में तीन दीनार के एक अलग दान दिये जाने का उल्लेख है, जिसके दान का अभिप्राय स्पष्ट नहीं है। गढ़वा अभिलेख ( द्वितीय ) में शासक की उपाधि के रूप में स्पष्ट रूप से परमभागवत विरुद का प्रयोग हुआ है। तृतीय अभिलेख में केवल ‘प’ अक्षर उपलब्ध है वह भी परमभागवत विरुद का अंश होगा। यह विरुद मुख्य रूप से चन्द्रगुप्त ( द्वितीय ) का ही समझा जाता है और उसके सोने के सिक्कों पर उसका उल्लेख मिलता है। कुमारगुप्त के लिये कदाचित् इसका प्रयोग अभिलेखों में हुआ है, वह भी कम ही।

गढ़वा अभिलेख ( चतुर्थ ) गुप्त सम्वत् [ ९ ] ९

परिचय

यह अभिलेख एक चौकोर पत्थर के स्तम्भ के टूटे हुए खण्ड पर अंकित है जो गढ़वा ( तहसील बारा, जनपद प्रयागराज) में १८७४-७५ ई० अथवा १८७५-७६ ई० में एक दीवार का मलबा हटाते समय एलेक्जेंडर कनिंघम को मिला था और इसे उन्होंने १८८० में प्रकाशित किया था। फ्लीट ने इसे अपने Corpus Inscriptionum Indicarum, Vol. III में स्थान दिया है।

गढ़वा से मिले पूर्वोक्त अभिलेखों के समान ही यह अभिलेख भी खण्डित है। जो अंश उपलब्ध है, वह दो पृथक् लेखों के अंश प्रतीत होते हैं और स्तम्भ के दो ओर अंकित हैं। एक लेख चौदह पंक्तियों का है जो चौड़ाई में केवल ३/ इंच है। दूसरा लेख आठ पंक्तियों का है जो चौड़ाई में ६/ इंच है। पहले लेख का पूर्वांश और दूसरे लेख का उत्तरांश अनुपलब्ध है।

 संक्षिप्त परिचय

नाम :- गढ़वा अभिलेख ( चतुर्थ )

स्थान :- गढ़वा दुर्ग, शंकरगढ़, बारा तहसील, प्रयागराज जनपद; उत्तर प्रदेश

भाषा :- संस्कृत

लिपि :- ब्राह्मी ( उत्तरी )

समय :- कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल, गुप्त सम्वत् [ ९ ] ९ [ = ९९ ] अर्थात् ४१८ ई०

मूलपाठ

( १ )

१. ….. श्र [ ी ] कु-

२. [ मारगुप्त राज्य संवत्सरे ] [ ९ ] ९

३. [ दिवसे…… अस्यां दि ] वस पूर्व्वायां म

४. …….. गुप्तस्यैव ……

५. …….. [ अ ] नन्तगुप्ताय ( ? या )

६. …….. पुण्याप्यायना-

७. [ र्त्थ ] …… [ सद ] सत्र सामान्यभोज-

८. [ न ] ……. [ दत्तादी ] नारैः देव ( ? )

९. …….. वासोयुगा-

१०. ………’परो दी-

११. [ नार ] ……. दीनारैः

१२. ……… [ यश्चैनं ] धर्मस्कन्ध व्यु-

१३. [ च्छिन्द्यात्स पंचभिर्महापात ] कैः संयु-

१४. क्तः स्यादिति [ ॥ ]

( २ )

१. ………… सत्रसामान्यभोजने ………

२. प्रति सुवर्ण्णेरेकान्नविइशतिमिः …….

३. कारितः [ । ] ब्राह्मणो मयिक ………

४. द्वयं २ करोत २ ब्र …….

५. युगं १ कोट्टय्ब सुकु ……..

६. दक्षिणकूलकञ्चोडं पक्ष ……… [ ॥ ]

७. यश्चैनं व्युच्छि [ द्यात्सपंचभिर्महा ]-

८. [ पा ] तकैस्संयुक्तः [ स्यादितिः ] [ । ]

टिप्पणी

इन लेखों का कोई व्यवस्थित अनुवाद प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है। प्रथम पंक्ति में ‘कु’ के आधार पर दूसरी पंक्ति की पूर्ति की गयी है। पंक्ति के अन्त में ९ की संख्या दिखायी पड़ती है जिससे अभिलेख इसके गुप्त संवत् ९९, १०६, ११९ या १२९ की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

प्रथम लेख की पंक्ति संख्या ५ में ‘अनन्तगुप्त’ अथवा ‘अनन्तगुप्ता’ नाम है। सम्भवतः उसने ही अपने दिये दान को इस अभिलेख में अंकित कराया है। आगे किसी सत्र में भोजन की सुविधा के निमित्त कुछ दीनार दान करने के उल्लेख रहा होगा। अन्त में दान के स्थायित्व में बाधा पहुँचानेवाले को पंचमहापातक का दोष होने का उल्लेख है।

इसी प्रकार दूसरे अभिलेख के उपलब्ध अंश में पहले किसी सत्र में भोजन के निमित्त १९ सुवर्ण दान देने का उल्लेख है; पश्चात् दो करोत की चर्चा है और नदी के दक्षिणी तट पर कुछ भूमि देने की बात का अनुमान होता है। अन्त में पूर्व लेख के समान ही दान में व्याघात पहुँचानेवाले को पंचमहापातक का दोषी होने का स्मरण दिलाया गया है।

दीनार बनाम सुवर्ण

यह द्रष्टव्य है कि पहले लेख में दान-धन के रूप में दीनारों का और दूसरे लेख में सुवर्ण का उल्लेख हुआ है। प्रायः गुप्तकालीन अभिलेखों में दीनारों का ही उल्लेख पाया जाता है और उनसे तात्पर्य गुप्त शासकों की सुवर्ण मुद्राओं से समझा जाता है। यहाँ दीनार के स्थान पर सुवर्ण का उल्लेख अप्रत्याशित है और ऐसा आभास प्रस्तुत करता है कि यहाँ दीनार से भिन्न किसी सिक्के से तात्पर्य है।

स्कन्दगुप्त के काल में भारी वजन के जो सिक्के प्रचलित किये गये थे, उन्हें ही लोग सुवर्ण-मान का अनुमान करते हैं। इस प्रकार पूर्वकालिक सिक्कों को दीनार और स्कन्दगुप्त तथा उनके परवर्ती शासकों के सिक्कों को सुवर्ण नाम से अभिहित किया जाता है। वस्तुतः यदि इसी प्रकार के अन्तर की अभिव्यक्ति यहाँ भी हो तो कहना और मानना होगा कि अभिलेख का दूसरा खण्ड कुमारगुप्त (प्रथम) के काल का नहीं होगा उसे स्कन्दगुप्त अथवा उनके बाद के काल का अनुमान करना पड़ेगा।

कुमारगुप्त ( प्रथम ) का बिलसड़ स्तम्भलेख – गुप्त सम्वत् ९६ ( ४१५ ई० )

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